एक मूक संकट: क्या हम अपने भोजन के साथ अपने अस्तित्व को भी खा रहे हैं?

“क्या हम कभी भोजन करने से पहले यह सोचते हैं कि क्या यह रासायनिक अवशेषों से मुक्त है? क्या यह केवल हमारे लिए ही नहीं, बल्कि पूरे पारिस्थितिक तंत्र के लिए सुरक्षित है?”

पृथ्वी इस समय गंभीर संकट के दौर से गुजर रही है। जलवायु परिवर्तन, पिघलते ग्लेशियर और बढ़ते तापमान की चर्चा आम हो चुकी है, लेकिन इससे भी अधिक गहरा संकट है – वह है हमारी कृषि पद्धतियों के कारण हो रही जैव विविधता की हानि और पारिस्थितिकी तंत्र का क्षरण। विशेष रूप से कृषि रसायनों – कीटनाशकों, फफूंदनाशकों, खरपतवारनाशकों और अन्य सिंथेटिक रसायनों – का अत्यधिक उपयोग, जो अब इस नीले ग्रह के अस्तित्व के लिए गंभीर खतरा बन चुका है।

आपकी थाली में छुपा रासायनिक जहर

आज अधिकांश भोजन – चाहे वह सब्जी हो, फल, या अनाज – में किसी न किसी मात्रा में रासायनिक अवशेष पाए जाते हैं। अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि नियोनिकोटिनॉयड्स, ग्लायफोसेट, क्लोर्पायरीफॉस आदि जैसे यौगिक नियमित रूप से मानव शरीर में प्रवेश कर रहे हैं। इनके दीर्घकालिक प्रभावों में तंत्रिका विकार, हार्मोनल असंतुलन, कैंसर, और बच्चों में विकासात्मक समस्याएं शामिल हैं।

लेकिन समस्या केवल मानव स्वास्थ्य तक सीमित नहीं है। ये रसायन मिट्टी, जल और वायु में भी फैलते हैं, जिससे सूक्ष्मजीव, परागण करने वाले कीट, पक्षी और जलजीवों की पूरी श्रृंखला प्रभावित होती है।

अदृश्य जीवन का विनाश: मिट्टी के सूक्ष्मजीव संकट में

मिट्टी केवल एक माध्यम नहीं है, वह जीवित है। एक चम्मच स्वस्थ मिट्टी में अरबों जीवाणु, कवक, और अन्य सूक्ष्मजीव होते हैं जो पोषण चक्र, रोग नियंत्रण और जल संरक्षण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

रासायनिक फफूंदनाशकों और खरपतवारनाशकों का अंधाधुंध उपयोग इन उपयोगी सूक्ष्मजीवों को नष्ट कर देता है। इससे मिट्टी की उर्वरता और जीवन शक्ति धीरे-धीरे समाप्त हो जाती है। किसान अधिक उर्वरकों और रसायनों पर निर्भर हो जाते हैं, जिससे यह दुष्चक्र और भी गहराता जाता है।

पक्षियों की चुप्पी: प्रकृति की चेतावनी

एक समय था जब सुबह पक्षियों के कलरव से दिन का आरंभ होता था, लेकिन अब वह संगीत धीरे-धीरे मौन में बदल रहा है। पक्षियों की जनसंख्या में विश्व स्तर पर भारी गिरावट आई है। विशेष रूप से कीटभक्षी पक्षी रसायनों के कारण घटते कीटों की संख्या के चलते विलुप्त हो रहे हैं।

1962 में रैचेल कार्सन ने Silent Spring में इस संकट की चेतावनी दी थी। आज, 60 वर्ष बाद, वह भविष्यवाणी हकीकत बन चुकी है। एक वैश्विक अध्ययन के अनुसार, 1970 से अब तक अमेरिका में 3 अरब पक्षी समाप्त हो चुके हैं – यानी 29% की गिरावट। यूरोप और एशिया की स्थिति भी कुछ अलग नहीं है।

पक्षियों का गायब होना केवल प्रतीकात्मक नहीं है, यह एक पारिस्थितिक संकेत है। पक्षी परागण, बीज प्रसार और कीट नियंत्रण में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इनके बिना खाद्य शृंखला असंतुलित हो जाती है।

विलुप्ति के द्वार पर खड़ी पृथ्वी

मानव इतिहास में यह छठा महाविलुप्ति काल चल रहा है – और इस बार इसका कारण स्वयं मानव है। हजारों प्रजातियाँ तेजी से समाप्त हो रही हैं – चाहे वे कीड़े हों, उभयचर, या स्तनधारी। इस संकट के मूल में हैं – कृषि रसायन, पर्यावास की हानि, जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण।

जब हम मधुमक्खियों को मारते हैं, तो हम परागण और खाद्य सुरक्षा को खतरे में डालते हैं। जब मेंढक और मछलियाँ समाप्त होती हैं, तो नदियों और तालाबों का संतुलन बिगड़ता है। यह सब अंततः मानव जीवन को ही प्रभावित करता है।

प्रगति का विरोधाभास: आत्मविनाश का रास्ता

मानव को सबसे बुद्धिमान प्रजाति माना जाता है, फिर भी हम ऐसी कृषि प्रणाली का समर्थन कर रहे हैं जो स्वयं को नष्ट कर रही है। क्या खाद्य सुरक्षा का अर्थ यह है कि हम दूसरों को मार कर जीवित रहें?

निश्चित रूप से नहीं।

पुनरुत्थान की आशा: समाधान और विकल्प

पृथ्वी में अद्भुत पुनर्जीवन क्षमता है। यदि हम अपनी नीतियों और व्यवहारों में परिवर्तन लाएँ, तो यह ग्रह फिर से स्वस्थ हो सकता है। इसके लिए निम्नलिखित वैज्ञानिक समाधान आवश्यक हैं:

  • अवशेष-मुक्त खेती (Residue-Free Farming): जैविक खाद, जीवामृत, मल्चिंग, और समेकित कीट प्रबंधन (IPM) जैसी तकनीकों से हम बिना रसायनों के स्वस्थ उपज ले सकते हैं।
  • कृषि जैव विविधता: मिश्रित फसलें, अंतरफसली खेती और वृक्ष आधारित कृषि प्रणाली पारिस्थितिक संतुलन को बनाए रखती हैं।
  • मिट्टी को जीवंत बनाना: न्यूनतम जुताई, आच्छादन फसलें और जैव उर्वरकों के प्रयोग से मिट्टी की उर्वरता लौटाई जा सकती है।
  • परागणकर्ता संरक्षण: हानिकारक कीटनाशकों को प्रतिबंधित कर मधुमक्खियों और तितलियों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।
  • उपभोक्ता जागरूकता: जब उपभोक्ता अवशेष-मुक्त और जैविक उत्पादों की माँग करते हैं, तब पूरा बाजार बदलता है। किसान समूह, प्रमाणन प्रणाली और स्थानीय विपणन मॉडल इसमें सहायक बन सकते हैं।

निष्कर्ष: प्रकृति पुनर्जन्म लेगी – हमारे साथ या हमारे बिना

प्रकृति समय के साथ स्वयं को पुनःस्थापित कर लेती है। यदि मानव इसी दिशा में चलता रहा, तो पृथ्वी तो बचेगी, परंतु मानव जाति नहीं।

पर हम अभी भी बदलाव कर सकते हैं। हमारे पास यह विकल्प है कि हम विनाश के रास्ते को त्याग कर पुनरुत्थान और सह-अस्तित्व का मार्ग चुनें।

अगली बार भोजन करने से पहले स्वयं से पूछें – क्या यह जीवनदायक है, या जीवन-हरण करने वाला? भविष्य हमारे उत्तर पर निर्भर करता है।

विजयकुमार सरूर

7972815345

sarurvijay@gmail.com

“भूमि की जुताई से लेकर फसल की कटाई तक—कृषि का समग्र समाधान”

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